खुद खत्म हो उन्होने बहुत दूर तक छोड़े हैं अपने निशान तब जाकर कही धुंधली सी बन पाई होगी यह पगडंडिया। कही पहाड़ पर से टेंढ़े - मेढ़े झरनो की उतरती हुई तो कही घने जंगलो में ओझल हुए जाती सी। पहली पहली दफा किसी ने तो चलना शुरू किया होगा। और फिर लगातार कदमों के निरन्तर प्रयासों से नित्य वो निखरती सी गई। अनन्त यात्राओं चलायें मान प्रवासों ने उन पेरो की प्रेरक गवाह और दोनो का आपसी सामन्जस्य फिर बनते से गयें। यह निशान छोटे - छोटे से दौरो की ये साफ झलक ठीक वैसे ही जैसे कही किसी कन्दराओं में बैंठे विचार, जो एकदम से नही पर धीरे - धीरे से मन में प्रवाहमान होते गये और लिखाते गये शब्द भरते गये, पृष्ठ तथा बनती गई दास्तां पहले एक फिर दो फिर और - और चलता रहा कारवां इस तरह असंख्य शब्दों की यात्राओं का समिश्रण दस्तावेज है ’दबी - कुचली घास की वो पगडंडिया...’
Dabi Kuchli Ghas Ki Vo Pagdandiya
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खुद खत्म हो उन्होने बहुत दूर तक छोड़े हैं अपने निशान तब जाकर कही धुंधली सी बन पाई होगी यह पगडंडिया। कही पहाड़ पर से टेंढ़े - मेढ़े झरनो की उतरती हुई तो कही घने जंगलो में ओझल हुए जाती सी। पहली पहली दफा किसी ने तो चलना शुरू किया होगा। और फिर लगातार कदमों के निरन्तर प्रयासों से नित्य वो निखरती सी गई। अनन्त यात्राओं चलायें मान प्रवासों ने उन पेरो की प्रेरक गवाह और दोनो का आपसी सामन्जस्य फिर बनते से गयें। यह निशान छोटे - छोटे से दौरो की ये साफ झलक ठीक वैसे ही जैसे कही किसी कन्दराओं में बैंठे विचार, जो एकदम से नही पर धीरे - धीरे से मन में प्रवाहमान होते गये और लिखाते गये शब्द भरते गये, पृष्ठ तथा बनती गई दास्तां पहले एक फिर दो फिर और - और चलता रहा कारवां इस तरह असंख्य शब्दों की यात्राओं का समिश्रण दस्तावेज है ’दबी - कुचली घास की वो पगडंडिया...’
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Minimum Purchase: ₹1,340
Format: | Paperback , Ebook |
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ISBN No. | 9789389540963 |
Publication date: | 12 Jan 2024 |
Publisher: | Rigi Publication |
Publication City/Country: | India |
Language: | Hindi |
Book Pages: | 46 |
Book Size: | 5.5" x 8.5" |
Book Interior: | Black & white interior with white paper |