उपन्यास का केन्द्र - बिन्दु एक ऐसी अनपढ़ , ग्रामीण महिला है जिसका बचपन अभावो से भरपूर परन्तु भावो से परिपूर्ण रहा ! स्वतन्त्र चिड़िया की तरह स्वच्छन्द उड़ान भरती प्रीतो कब विवाह - बन्धन की गहरी खाई में जा फँसी - धँसने के बाद ही होश आया ! परन्तु उसकी दिलेरी, बहादुरी, साहस, हिम्मत, आत्मसम्मान, हठ और कुछ करने के जोश के आगे उसकी अनपढ़ता और अन्य सभी पारम्परिक सामाजिक विषमताएँ अवरोध तो अवश्य बनी, सबकी एकजुटता ने रास्ते को कंटीला भी बनाया, मंजिल तक पहुँचने की उसकी मजबूत इच्छाशकती का गला न घोंट सकीं ! शाबाश प्रीतो ! समाज के गले - सड़े बन्धनों को जिस हिम्मत से तूने अस्वीकार करके नई राह चुनी , चारो ओर पसरे बहरे कोलाहल में जो बुलन्द आवाज़ उठाई - उस ज़ज्बे, उस आगे के शोले को सलाम ! ज़ुल्म, सहने वाला जब ज़ुल्म करने करने वाले के हाथ रोक देता है तो उस समय उसकी सहनशकति जवाब नहीं देती अपितु जवाब माँगती है, उसकी आँख के आँसू अंगारे बनकर सामने वाले को राख कर देते है ! ऐसी ही आग इस उपन्यास की नायिका में अन्त तक दिखाई देती है !
ग्रामीण भाषा का स्पर्श कहानी को रोचक बनाता है, छोटे - छोटे वाक्यो से जुङा उपन्यास काव्यात्मक पुट समेटे हुए है ! वास्तविक जीवन से जुडी घटनाएँ कहानी को आगे बढ़ाती है और अन्त तक रोचकता, उत्सुकता और सस्पैंस बनाए रखती है ! समाज में नारी की अशक्तता को दर्शाता हुआ उपन्यास विभिन्न जटिल मोड़ों से गुज़रता हुआ नारी की सशक्तता है ! सुखान्त अंत भले ही पाठकों में आशा का सचार करता है, परन्तु एक प्रशनचिह्न उनके सामने हमेशा की तरह खड़ा हो जाता है कि नारी को समाज में खुद को साबित करने के लिए कब तक पुरुष का अंहकार उसे लाचार और खोटा सिक्का समझता रहेगा ? अपनी स्वतन्त्र साँस और आस पर असली हक उसे कब मिलेगा ?